July 2023 - Dr.Brieshkumar Chandrarav

Thursday, July 27, 2023

Humanity is wealth of  THE WORLD 🌎
July 27, 2023 3 Comments

 The Great plato says,

Human behavior flows from three main sources:
Desire, Emotion and knowledge.

अभिलाष, संवेदन और ज्ञान ही मनुष्य वर्तन के मूलभूत स्रोत हैं।


नये नये विषय पर चिंतन करना, कुछ नये शब्द और विचार से अचंभित हो-कर सतत सोचते रहना ब्लोग के कारण संभव हुआ। सोशल साइट्स-मिडिया के कारण जान-पहचान वालें साथ अनजान भी मुझे पढते हैं इसके आनंद से लिखना जरुरी हो गया...!
Thanks to all my Great Readers.

The republic

द ग्रेट प्लेटो जो ग्रिक फिलसूफ थे। उनकी अप्रतिम चिंतनप्रज्ञा विश्व का मार्गदर्शन करती हैं। सत्य स्थापित करने के लिए तार्किकता की आवश्यकता हैं, लेकिन सत्य स्थापित करने का सरल माध्यम तो  सहज कर्म हैं। मैं सौ प्रतिशत मानता हूं की द ग्रेट प्लेटो ऐसे ही सरल-सहज होगे। लेकिन वे असहज थे। क्योंकी उनके द्वारा जो विचार स्थापन हुआ है, वो आज भी प्रस्तुत हैं। साथ ही उनका विचार मंथन प्राकृतिक भी हैं। इसीलिए उस विचार में जीवंतता हैं, मनुष्य जीवन की सिद्धता हैं साथ उस विचार में माधुर्य भी हैं। सर्वसामान्य विचार सहज ही दिलो-दिमाग में अंकित हो ही जाता है।
Respective Salute to the Great plato.

मनुष्य कैसा व्यवहार करें ?
मनुष्य का वर्तन-व्यवहार कब बहतरीन कहा जाए ?

उसका सुंदर जवाब प्लेटो के तीन शब्दों में मिल जाता हैं। आशा,आकांक्षा, अभिलाषा,उम्मीद जो कहो उसके बिना क्या मनुष्य मनुष्य हैं क्या ? ये है तो जीवन का सफर खूबसूरत हैं, बाकी शुष्कता के  आवरण मात्र से जीवन दूसरों के लिए या खुद के लिए भी पीड़ा ही बना रहेगा। अभिलाषा मन में पलती हैं, वो एक दृश्यरूप के लिए ही मन में अंकुरित होती हैं। लेकिन उसके साथ संवेदना का स्पर्श भी इतना ही आवश्यक हैं। इसके बिना रुक्ष अभिलाषा दुनिया के लिए या अपने खुद के लिए कोई कमाल नहीं कर सकती। बस कुछ कमाल करने वाला व्यवहार ही करना हैं।

अभिलाषा को संवेदना के रंगो में घोलकर अप्रतिम आकार को अंजाम देना होगा। इन दोनों को पूरे ममत्व से संवर्धित करने का काम ज्ञान का हैं। वैसे तो ये पारस्परिक प्रक्रियाएं हैं, लेकिन उनको अलग-अलग समझकर मूलतत्व के समीप जायेंगे। इसे समझना भी ज्ञान अर्जन क्रियान्वयन हैं।
हरेक का जीवन ज्ञान से अप्रतिम पहचान बना सकता हैं!
The life goes to real mould.

मनुष्य जीवन के मूलभूत स्रोत के रूप में अभिलाष-संवेदन-ज्ञान इन तीनों की एहमियत धारण करना होगा। ईश्वर ने मनुष्य के प्रकृतिगत संवर्धन में इन तीन वर्तनी का मूलमंत्र दिया हैं। द ग्रेट प्लेटो ने सहज ही कुदरत के तत्व-सत्व को महसूस किया हैं, तभी तो उनके लिए येसे सिद्धांत को पकड पाना संभव हुआ हैं। समष्टिगत है वो असरदार होता हैं। जैसे ये द ग्रेट प्लेटो का मत..!

विश्व के लिए कैसे ज्ञान की आवश्यकता हैं ?
तो एकमात्र उत्तर हैं...संवेदना से भरी आकांक्षाओं का आकारित होना। आज मानवता की मूडी ही विश्व को मार्गदर्शन करके शान्ति स्थापित कर सकती हैं। एक व्यक्ति के रूप में मेरा और आपका अनुसरण भी ईस दिशा में हैं, तो मेरे और आपके तो बल्ले-बल्ले ही समझें...! 

🐣 आपका ThoughtBird 🐣
Dr.Brijeshkumar Chandrarav ✍️
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09428312234.
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Sunday, July 23, 2023

Excellency should become HABIT.
July 23, 20230 Comments

 "We are what we repeatedly do.

Excellence, then, is not an act,
BUT A HABIT......!" Aristotle.

निरंतरता सफलता का मूलमंत्र हैं। ग्रीक फिलसूफ द ग्रेट ऐरीस्टोटल का ये प्रसिद्ध क्वाॅट हैं। हम जो निरंतर करते हैं, वो कार्य निपूर्णता के साथ आदत में परिणमित हो तो कैसा ? जिन लोगों ने अपने अपने क्षेत्रों में जो विशिष्ट कारनामें किए हैं वो येसे ही नहीं हुए। उन लोंगों की सोच में कुछ अनोखे किस्म के केमिकल्स पैदा होते हैं। उनका काम एक धून से, कुछ आराधना के पल से या कर्म साधना से कम नहीं होते ! कुछ करने में महारत येसे हांसिल नहीं होती। 


"चरैवेति चरैवेति यहीं तो कर्म है अपना,
नहीं रुकना नहीं थकना यहीं तो मंत्र हैं अपना..!"

अपने कार्य के प्रति प्रतिबद्ध रूप से झुड जाना ये कोई सामान्य घटना नहीं हैं, मनुष्य के रुप में हमारी अपनी कार्यशैली होती हैं, अपनी खुद की पसंद और अपनी खुद की एक अभिरुचि होती हैं। लेकिन इस को पकडने व समझने में एक-दो प्रतिशत लोग ही सफल होते हैं। ऐसा क्यों..? उसके बारें में सोचकर समय बर्बाद करना ठीक नहीं। लेकिन जो लोग दुनिया के नक्शे में अपना स्थान कायम करते हैं। वो जहां है कुछ हटके करके फटके लगाते हैं। और दुनिया ठुमके लगाकर उनके काम की भूरि-भूरि प्रशंसा करती हैं, वो बात मुझे और आपको लाजवाब लगती हैं..! बराबर जा रहा हूं ? भाई कोई तो ये पढ रहा होगा न... इसलिए उनके साथ थोडा ताल-मेल के लिए बस..! बाकी चरैवेति चरैवेति !

एक भजन की कुछ पंक्तियों इस ब्लॉग के साथ बहुत अच्छी लगेगी।
मुझे बहुत पसंद है आपको भी जरुर आनंद देगी..श्रद्धा पूर्वक..!

ज्यां चरन रुके त्यां काशी...जग मां,
झाकर ना बिन्दु मां जोयो...गंगा नो जलराशी !!
ज्यां चरन रुके त्यां काशी..!
ज्यां पाय उठे त्यां राजमार्ग,ज्यां तरतो त्यां महासागर,
जे गम छानु एज दीशा मुझ, ध्रुव व्यापे सचराचर..!
स्थिर रहू तो सरके धरती !
हुं तो नित्य प्रवासी...!
ज्यां चरन रुके त्यां काशी...!

गीत गुजराती भाषा में हैं,शब्द पकडने में दिक्कत आए तो माफ करना थोडा प्रयास करना समज में जरूर आएगा। व्यक्ति अपने जीवन की गति को कितनी बखूबी से, अपनी ही मर्ज़ी से मनचाहा मुकाम देने सक्षम हैं !! नित्य निरंतर व एक निष्ठ होकर अपने कार्य के प्रति प्रतिबद्ध होकर आनंदित मार्ग का दमदार निर्माण करना  करामात से कम हैं क्या ? बेशक यह करामाती संभव हैं। मेरे लिए आपके लिए और संसार के कोई भी के लिए...! आनंद मार्ग  अनुसरण के नित्य प्रवासी के लिए ये जरूर संभव हैं। संभव और असंभव के बीच की दूरी, व्यक्ति की सोच पर निर्भर करती हैं। ओर जहां सोच हैं वहां ही जीवन्तता हैं, वहीं पर कुछ नयापन अवतरित होगा..जरूर होगा !! आदतें बूरी नही होती...कभी उनका शानदार प्रदर्शन भी होता हैं। सबके जीवन में काम का महत्वपूर्ण स्थान हैं। अपनी सफर का कार्य निपूर्णता के मार्ग से गुजरता एक बहतरीन आदत के मुकाम को हासिल करे ऐसी शुभकामना..!

"आनंदविश्व सहेलगाह" जीवन-विचार-आनंद और प्रेम की बात को लेकर आपके सामने चार-पांच दिनों के अंतरों में पब्लिश होता हैं। मेरा ब्लॉग मेरी समज से बहार मेरी कल्पना से आगे कुछ दमदार कदमताल कर रहा हैं। डेढ लाख से अधिक व्यूअर्स से...आनंद महसूस होता हैं...ये मेरा जन्मदत्त कर्म हैं, उसे सहज निभाए जा रहा हूँ... It's my own चरैवेति चरैवेति..!

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Tuesday, July 18, 2023

Reletions and Emotions live in each other.
July 18, 2023 5 Comments

 रिश्ते-संबंध संवेदना के आधार पर ही जीवंत हैं...!

दमदार जीना है तो रिश्ते भी दमदार बनानें होंगे।

"कुछ रिश्ते मुनाफा नहीं देते लेकिन जिंदगी को अमीर जरूर बना देते हैं" पढते ही कुछ अच्छा लगा !!  एक हिन्दी आल्बम सोंग कई दिनों से मुझे अपना विषय दे कर कुछ लिखवाना चाहता था। फिर क्या..? संवेदना की बात लिखनी ही पडी..! "बधाई हो बधाई" का पामेला जैन के द्वारा गाई हुई दमदार सोंग की कुछ पंक्तियाँ...आपके लिए !!

दिलों के मोहल्ले जा के, तेरी मेरी बातें करना,
जहां भर की बातें भूलें, तेरी मेरी बातें करना..!
ओ झोंके, झोंके ये हवा के लाए, दोनों को बहाके हायें,
बनें देखों हम शरमायें एक दूजे के...हायें,
एक दूजे के हाथों की लकीरों का तय था मिलना..!

कभी कभी शब्दों में भी जान आ जाती है, तो सुनना- पढना अच्छा लगता है। मुझे तो लगता हैं, शब्दों के बीच भी कोई गहरा रिश्ता  होगा। तभी तो शब्दों का मिलन कमाल बन जाता है। वाह !! जैसे अल्फाज का निकलना यूहीं नहीं होता, ये भीतरी करामात हैं। ये कोई ताल हैं, जो सहज ही प्रकट होता हैं।


माफ करना, मैं हमारें रिश्तों की बात करते करते शब्दों के रिश्तों की उलझन में पड गया। ये रिश्तें भी कमाल की चीज हैं। रिश्ते-संबंध दमदार है तो हमें खिंच ही लेंगे। चाहें वो शब्दों के, प्रकृति,प्राणी-पशु के या तो मनुष्य के बीच के हो। रिश्तों को धडकने के लिए संवेदना की आवश्यकता कितने पैमाने के तौर पर हैं..?! वो मुझे पता नहीं। लेकिन वो सांसो की तरह जरूरी हैं। 

मगर सच्चे-अच्छे रिश्तों का मुनाफा बेशुमार होता हैं। कहीं ये दिखता हैं, कहीं नहीं भी! कहीं सारी जिंदगी अमीरात बन जाती हैं। जिन लकीरों का मिलना तय हैं, वो लकीरें एक दूजे के अनोखे बंधन में गुल मिल जाती ही हैं। ईमोशन्स के बिना संबंध का निर्माण होना शायद संभव ही नहीं। लेकिन जब संवेदना की तर्ज से उपर तर्क का विजय होता हैं तब रिश्तें उलझनें बन जाते हैं। मुझे  उलझन के बारें में नहीं लिखना। क्योंकि मुझे सुलझन से प्यार हैं !!

आज सबसे अमीर वो है जिनके पास अच्छे रिश्तें हैं। कोई हमसे रिश्ता झोडना चाहें, कोई रिश्ते-संबंध को कायम करना चाहें उससे बड़ी लाजवाब बात क्या हो सकती हैं ? रिश्ते-संबंध को बखूबी निभाना भी एक जिम्मेदारी हैं। आज खुलेपन से जीना बोझिल बन गया हैं। अपनी भीतरी आवाज के साथ दूसरी आवाज की सरगम बजे तो एक बहतरीन रिश्ता आकार सजता हैं। ईश्वर की पारस्परिक प्रेम बंधन की अद्भुत दुनिया का ये पैगाम हैं। ये कईं समत्वशीलों की आवाज हैं। ईमोशन्स हैं तो रिलेशन्स हैं, बाकी...लोग जिसे जिंदगी कहते हैं मैं उसे गुजारा कहता हूं। आप क्या कहेंगे ?

मनुष्य के रिश्तों के बारे में, क्या लिखा जाए ? मुझे तो प्रकृति की हरएक हरकत में रिश्ता दिखता हैं। उसे देखकर ही मैं खुश हो जाता हूं। एक ही उदाहरण... धरती की गोद में एक पौधा पलता हैं, धरती के रंगों को चूसकर, धरती की ही महेंक को पी कर एक पौधा पलता हैं। वो छोटा-सा पौधा जानता हैं खुद को..अपनी हरियाली के रंग को, इसलिए वो अपने पूरे अस्तित्व को ही धरती को सौंप देता हैं। तुं हैं तो मैं हूं। तुझसे छूट जाने से क्या है मेरी हसरत ? एक छोटा-सा पौधा सब जानता हैं...इससे तो ये रिश्ता क्या कहलाता हैं... हमारी समझ में सहज ही आ गया !! बराबर है न ?

बस, सबकुछ कह देनें पर भी दिल न भरें, बार बार मिलने पर भी मन न भरें। खुद को खाली कर देने की...कभी खत्म न होने वाली बातें करने की उम्मीदें ही तो...जानदार-शानदार- दमदार रिश्तें बनाने के बादल समझो !! दिलों की पाठशाला का अनोखा चैप्टर..रिश्ते-संबंध !!

आनंदविश्व सहेलगाह में कुछ नटखट बातों की रिमझिम फुहार के साथ....!

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Wednesday, July 12, 2023

THE NATIONALISM going with NATURALISM.
July 12, 2023 4 Comments

 राष्ट्रवाद और प्रकृतिवाद में साम्यता हैं क्य़ा ?

मनुष्य के लिए राष्ट्रीयता प्राकृतिक होनी चाहिए !
अनुराग में जीना ही सभ्यता हैं !


मनुष्य जीतना सुसंस्कृत हुआ उतनी समस्याएं पैदा हो गई। मनुष्य की एकाकी सफर (आदिमानव वाली) सामुदायिक होती गई....साथ न जाने कितने वर्गभेद में बंटती गई। हमने ही समूह में जीना पसंद किया, हमने ही परिवार की संकल्पना आकारित की हैं। हमने राष्ट्र बनाकर सीमाओं के दायरे भी खींचे हैं। हमने ही पारस्परिक साथ वाला जीवन पसंद किया। एक दूसरें की संगत को रंगत भी हमने ही  बनाया..! अनुराग में जीने का पागलपन ही मानवीय सभ्यता हैं। ईश्वर की प्रकृतिगत सृष्टि इसी कमाल को आगे बढाती हैं। हम सब ज्यादा सुसंस्कृत होने लगे और मानवीय सभ्यता की नई मिसाल खडी करने का प्रयास करने लगे। अच्छी बात हैं, समय की मांग पर आवश्यकता के अनुसार मनुष्य जीवन निर्भर करता हैं..!!

मैं वैयक्तिक रूप से प्रकृति के सिद्धांत में ज्यादातर विश्वास करता हूं। क्योंकि उसका विजय ही सनातन हैं, वो न किसीका सुनती हैं, न किसीके प्रभाव में अनुसरण करती है। प्रकृति प्रकृति हैं !! वही नित्य हैं, सनातन सत्य भी वही हैं। ईस प्रकृति के साम्राज्य में हम मनुष्य अपनी सांस ले रहे हैं। इनमें से हमने अपना जीवन ढूंढा हैं। 

विशाल पृथ्वी में हम जहां पैदा हुए वो हमारा जन्मस्थान कहलाया। ममत्व से उस धरती से हम सहज झुडाव महसूस करने लगें। प्रकृतिगत हमारी संवेदनाएं भी उस स्थान से झुड ही जाती हैं। मेरा घर, मेरा गांव, मेरा देश,मेरा खंड मेरी धरती जैसे कईं ममत्वों से संवृत होते चलें।भू-भाग के साथ ही हमारा अस्तित्व जोडने लगे।

भारत की प्राचीन वेद परंपरा "वसुधैव कुटुंबकम" सारी पृथ्वी एक कुटुंब हैं ऐसा कहती हैं। जिज्ञासावश मेरे मन में एक सवाल हैं...की विश्व के कल्याण का भाव रखने वाली सनातन संस्कृति, वेद परंपरा  में भेदभाव जैसा अनुसरण होगा क्या ? मैं तो भेदभाव शब्द की कल्पना भी नहीं कर सकता। 

विश्व बंधुता के विचार हमारे भारतवर्ष की मानवीय सभ्यता के प्राण हैं। विराट-विशालतम मात्र कल्पनाएं नहीं अनुसरण भी हमारे राष्ट्र के चेतनतत्व हैं। तो कटुताएं- वैमनस्य एवं निश्चित वर्ग समूह की श्रेष्ठताएं कैसा विनाश करेगी ? जब स्वार्थ पूर्ण विचार-वर्तन का विस्तार बढ जाए तब संपूर्ण विध्वंस ही झेलना पडता हैं। ये भी प्रकृति का सिद्धांत हैं। एक मात्र डायनासोर के लूप्त अस्तित्व के उदाहरण को देखे तो भी काफी-कुछ समज में आता हैं। समस्त प्राणी सृष्टि के लिए भयानक था ये महाकाय प्राणी लेकिन उनका ही अंत हो गया। गजराज भी महाकाय हैं वो आज भी पवित्रम अस्तित्व बनाए हुए हैं !!

उत्क्रांतिक गति में कई लुप्त हो गए हैं। सही हैं न ?!
प्रताडित करने में महारत हांसिल की जा सकती हैं, थोड़ी बहुत वाहवाही भी हो सकती हैं....विजय नहीं !

महान ईश्वर सबका हैं, वो सृजन का आधार हैं वो निर्मिति का कारण भी हैं। भारतवर्ष महान सभ्यता के रुप में इसी विशालतम विचारधारा से उभरता गया हैं। वेद प्रकृति के पुरस्कर्ता हैं। वेद संवेदना के भी  पुरस्कर्ता हैं। वेद प्रकृति की जीवंतता से मनुष्य को जोडकर उम्मीद से भरा श्रद्धा और विश्वास से भरा निर्भिक जीवन प्रदान करने की बात करते हैं। ईस विचार में "राष्ट्रवाद" किस तरीके का आकारित होना चाहिए ये हमें ही सोचना चाहिए। फिर हम क्या वर्ताव करते हैं वो भी हमें ही सोचना हैं !! राष्ट्र के प्रति अहोभाव कभी न भूलें!

प्रकृति पंच भूतानि ग्रहा लोका स्वरास्तथा । 
दिशः कालश्च सर्वेषां सदा कुर्वन्तु मंगलमय ।।

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Dr.Brijeshkumar Chandrarav
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Friday, July 7, 2023

The LIFE is a journey of miracle.
July 07, 2023 2 Comments

 जीवन संभावनाओं से भरी यात्रा हैं !!

हररोज नयें...छोटे छोटे चमत्कारों से भरी अद्भुत सहेलगाह!

विशाल धरती, विशाल समुद्र और विशालता का दृश्यमान अस्तित्व आकाश- आसमान...! असीमित संभावनाएँ उनके पास होती हैं, जो विशाल हैं। असीमित-अनंत होता हैं, वो ही तो ईश्वर हैं। ईश्वर अदृश्य हैं येसा हम समझते हैं लेकिन ईश्वर दृश्यमान भी हैं।

The life

जो दृश्य हमें आनंद देता हैं, उसे देखकर ही सूकून मिलता हैं, कुछ अद्भुत महसूसी का मंजर आकारित होता हैं। दिल की धड़कने संगीत बन जाती हैं, ऐसा माहोल जहाँ भी हो वहीं ईश्वर हैं। विराट हैं वो ईश्वर ही हैं। जहां संकुचितता हैं वहां पीड़ा-दुख हैं। इसीलिए जब शब्द विचार वर्तन में,अपनी सोच में थोडी बहुत विशालता प्रकट होती हैं, तो समझो हम ईश्वर की योजना के मांझे हुए किरदारों में से हैं।

आसमान में क्या हैं ?
बस खुलेपन के सिवाय क्या हैं ?
शून्यता के अलावा वहाँ क्या हैं ?

सोचने की बात हैं। हमें बुद्धि की गहराई में जा कर सोचना पड़ेगा।  आसमान की शून्यता हमें काफी कुछ समझाती हैं। शून्यता के सामने शून्य बनकर बैठने से शायद वो अपनी विशालता का परिचय हमें  दें..! "आसमान हवा से परिपूर्ण हैं, आसमान प्रकाश से संवृत हैं। आसमान परीवृत्त हैं पूरी ब्रह्माण्डीय शक्ति को धारण किए। आसमान जीव-जगत के वैविध्य का साक्ष्य हैं, युगों से ईश्वरीय साक्षत्व को धरें..!" आकाश की औचित्यपूर्ण बातों से मन भर गया न ? दोस्तो, खुलेपन में, इस शून्यता में सब समाहित हैं। जिंदगी के मुसाफ़िर के रूप में उन विशालता के साथ हमें नाता कायम करना हैं। जुडना है तो शक्ति से जुड़ना हैं क्योंकि वो ही समष्टि का हित कर सकती हैं। मुझे वो मार्ग चयनित करना होगा जो मुझसे बेहतर दूसरों के हित का विचार दें...ये मार्ग चमत्कारीक हैं। यहाँ संभावनाएं निहित हैं साथ दृश्यमान घटनाएं भी विद्यमान हैं।

मनुष्य के रुप में हमारी जिंदगी विशाल आसमान के तले बीतती जा रही हैं। एक फिल्म गीत याद आ गया.."हे..नीले गगन के तले धरती का प्यार पले..येसे ही जग मेंं आती हैं सुबहे, येसे ही शाम ढले !!" कुदरत का अविश्रान्त,अविरत घटनाक्रम और हम उन के साक्ष्य पैमाने हैं। हमें कुदरत की जादुई कृपा प्राप्त करके संसार के उत्तम निमित्त बनना होगा। संभावनाए सामने हैं, बस चलते जाना हैं। वैसे तो हमारा व्यक्तिगत जीवन भी कईं चमत्कारों से भरा हैं। लेकिन "मैं कर रहा हूँ " और "मुझसे ये सब हो रहा हैं।" मेरा पुरुषार्थ,मेरा कर्म इसमें तथ्यात्मक ईश्वर की मरजी अदृश्य हो जाती हैं। हमें कोई भी अचंभित नहीं दिखाई देता।

मैं इतना समझ पाया हूं कि विराटता में विश्वरूप हैं। गीताकार योगेश्वर कृष्ण ने अपना विश्वरूप दर्शन कराकर अर्जुन की सारीं दुविधा खत्म कर दी। यहां विशाल-विराट हैं। जल-अग्नि-पवन विराट हैं, ईसीलिए शक्तिमान भी हैं।

चलें, कुछ शब्दों से आसमान से प्रार्थनीय संवाद करें !!
हे..अनंत आकाश !
तेरी असीमितता को नमन करता हूं।
तेरी विशालता के सामने सब कुछ छोटा-सा हैं।
पृथ्वी के कई गोलें तेरे ही भीतर घूम रहे हैं।
हे...अनंत आकाश !
अद्भुत संभावनाओं से भरा तेरा साम्राज्य,
युगों का तुं ही आवरण!
हमारी तो एक ही धरती हैं।
तुं तो असंख्य का आवरण बनें अडिग हैं।
तेरे आकर्षण से मुझे कुछ सिखना हैं,
थोड़े-बहुत दूर तक विस्तरीत होना हैं,
और
छोटा-सा आवरण बनना हैं।
मैं तेरा ही टुकड़ा हूँ...!
आकाशीयुं..!

चलें...खुलेपन की अद्भुत मोज के लिए..अपने छोटे-से आसमान की ओर...! जहां संभावनाए हमारी राह देख रही हैं।

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Dr.Brijeshkumar Chandrarav
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Monday, July 3, 2023

The GURU is strength of learners.
July 03, 20231 Comments

 असमर्थता को समर्थता में बदल दें, 

अस्तित्व की मूल चेतना को प्रकाशमान करें,

प्रकृतिक संबंध की ओर....! मन के संवर्धन की ओर !!
वैयक्तिक दृष्टि निर्माण करें वो सद्गुरु हैं।


भारतवर्ष परंपराओं के निर्वहन का देश हैं। यहां अनादिकाल से कईं परंपराएँ स्थापित हो चुकी हैं। शाश्वती का अनुसरण आज भी होता जा रहा हैं। "गुरुपूर्णिमा" एक ऐसा ही सनातन उत्सव हैं। ज्ञान गौरव की आनंद क्षण हैं।

The learners


भारतीय संस्कृति का मूल तत्व शिक्षा हैं। शिक्षा ही परंपरा का निर्माण करती हैं। ज्ञान के स्थापन का आधार शिक्षा हैं। सही ढंग से सब जा रहा है तो संस्कृति का निर्वहन बखूबी वैसा ही होगा जैसा मूलतत्व मैं हैं। वैसे शिक्षापन से समाज की विकास प्रक्रिया श्रेष्ठतम ही रहेगी।  लेकिन, वैयक्तिक व सामूहिक, जातीय व ज्ञातीय, क्षेत्रीय व प्रांतीय स्वार्थ वृत्तिओं का सांस्कृतिक अनुसरण में घुसना, बडी समस्याएँ पैदा करता हैं। गुरु के रूप में एक व्यक्ति ईस दायित्व को बखूबी अंजाम देने का प्रयास करता हैं। वो अपने कर्म को ईश्वर का आदेश व प्राकृतिक भूमिका के रूप में समझता हैं। येसे अपरिग्रही व्यक्ति का सम्मान दिवस "गुरुपूर्णिमा" हैं। उनके शानदार प्रदर्शन के सामने समर्पण का भाव प्रकट करने का ये  उत्सव हैं। येसा कुछ मेरी समज में प्रस्थापित हो चुका हैं। मैं सही हूं येसा दावा बिलकुल नहीं हैं। लेकिन सनातन सत्य के नजदीक हूं इसके बारें में दृढ हूं।

आज के दौर मे "गुरु" के उपर इतने सारे बंधन डाल दिए हैं कि कोई गुरु बनने या कहलाने को भी तैयार नहीं। गुरु वृत्ति की सहजता-सरलता को हमने खो दिया हैं। गुरु शब्द का मतलब बडा हैं। इसका उम्र-अवस्था या कोई भी प्रकार के बडप्पन से नहीं हैं। न जानने वाले से जाननेवाला बडा हैं बस..! जो हमसे बडा हैं वो हमें वस्तु-विचार एवं वर्तन से ज्ञात करवाएगा। ये सहज प्रक्रिया हैं। इसमें दोनों को एक-दूसरे के प्रति नि:संदेह रहना हैं। ये पारस्परिक श्रद्धापन एक ताकत के रुप में उभरती हैं। वही हमारी मूलभूत "गुरु-शिष्य" परंपरा हैं। ईश्वर की अनन्य सृष्टि का ये अनमोल संबंध हैं। इस बेहतरीन ज्ञान संवर्धन-निर्वहन की परंपरा को हमने कई बंधनों में डाल दिया हैं। खान-पान-रहन...न जाने सिखाने वाले को कितनी शुद्धता से नापना हैं ? जब ज्ञान के स्थापन संवर्धन और ज्ञान निर्वहन से हमारा ध्यान भटकता हैं, और उसका निर्वहन करने वाले के वर्तन के बारें में हम अटक जाते हैं तब क्या बचेगा ?! 
क्या गुरु बचेगा ?
क्या शिष्य बचेगा ?
क्या ज्ञान परंपरा बचेगी ?
मुझे लगता हैं, हमारे पास इतिहास की बातें ही बचेगी। गुणानुराग की परंपरा के सिवाय हमारे पास क्या होगा ?

भारतवर्ष ज्ञान की असीमित संभावनाओं का देश हैं। हमारी ज्ञान संपदा को कईं राष्ट्रो ने अपनाया और असमर्थ बनते गए। उनके शोध-अनुसंधान से आज विश्व नयेपन से व्याप्त हैं।

"गुरुपरंपरा" जो भारतवर्ष का मूल तत्व था, सत्व था उससे हम दूर होते रहे हैं। निजी स्वार्थ और सत्य की स्वीकृति से कब तक भागना हैं ? या ज्ञानसंपदा को लेकर अस्वस्थ ही रहना हैं। आज सबको ईस गुरु-शिष्य परंपरा की याद दिलाने की नौबत पे खडे हैं। ईस परंपरा में अड़चने कहां से आई ? जब सत्य और सात्विकता पर संदेह होते हैं, तब संस्कृति के संरक्षण व स्थापन के प्रयास ही करने पडते हैं...!

आनंदविश्व सहेलगाह के झरिये में भारतवर्ष की आध्यात्मिक धरोहर का भी समर्थन करते हुए विचार रखता हूं। क्योंकि मैं ये सत्वशील संपदा के अनुराग में हूं। ईश्वर की अद्भुत सृष्टि के प्रेम के कारणवश भी..ये पीड़ा शब्दांकित करता हूं। किसीको इसमें तथ्य दिखे, किसीको सत्य...!
                घने अंधकार से परम प्रकाश की ओर गुरु ही ले जाते हैं।

आज के पवित्र उत्सव पर मेरे किरदार को आकारीत करने वाले सभी गुरुवर्य के सामने नतमस्तक !

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Who is soulmate ?

  'आत्मसाथी' एक शब्द से उपर हैं !  जीवन सफर का उत्कृष्ठ जुड़ाव व महसूसी का पड़ाव !! शब्द की बात अनुभूति में बदलकर पढेंगे तो सहज ही आ...

@Mox Infotech


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