असमर्थता को समर्थता में बदल दें,
अस्तित्व की मूल चेतना को प्रकाशमान करें,
प्रकृतिक संबंध की ओर....! मन के संवर्धन की ओर !!
वैयक्तिक दृष्टि निर्माण करें वो सद्गुरु हैं।
भारतवर्ष परंपराओं के निर्वहन का देश हैं। यहां अनादिकाल से कईं परंपराएँ स्थापित हो चुकी हैं। शाश्वती का अनुसरण आज भी होता जा रहा हैं। "गुरुपूर्णिमा" एक ऐसा ही सनातन उत्सव हैं। ज्ञान गौरव की आनंद क्षण हैं।
भारतीय संस्कृति का मूल तत्व शिक्षा हैं। शिक्षा ही परंपरा का निर्माण करती हैं। ज्ञान के स्थापन का आधार शिक्षा हैं। सही ढंग से सब जा रहा है तो संस्कृति का निर्वहन बखूबी वैसा ही होगा जैसा मूलतत्व मैं हैं। वैसे शिक्षापन से समाज की विकास प्रक्रिया श्रेष्ठतम ही रहेगी। लेकिन, वैयक्तिक व सामूहिक, जातीय व ज्ञातीय, क्षेत्रीय व प्रांतीय स्वार्थ वृत्तिओं का सांस्कृतिक अनुसरण में घुसना, बडी समस्याएँ पैदा करता हैं। गुरु के रूप में एक व्यक्ति ईस दायित्व को बखूबी अंजाम देने का प्रयास करता हैं। वो अपने कर्म को ईश्वर का आदेश व प्राकृतिक भूमिका के रूप में समझता हैं। येसे अपरिग्रही व्यक्ति का सम्मान दिवस "गुरुपूर्णिमा" हैं। उनके शानदार प्रदर्शन के सामने समर्पण का भाव प्रकट करने का ये उत्सव हैं। येसा कुछ मेरी समज में प्रस्थापित हो चुका हैं। मैं सही हूं येसा दावा बिलकुल नहीं हैं। लेकिन सनातन सत्य के नजदीक हूं इसके बारें में दृढ हूं।
आज के दौर मे "गुरु" के उपर इतने सारे बंधन डाल दिए हैं कि कोई गुरु बनने या कहलाने को भी तैयार नहीं। गुरु वृत्ति की सहजता-सरलता को हमने खो दिया हैं। गुरु शब्द का मतलब बडा हैं। इसका उम्र-अवस्था या कोई भी प्रकार के बडप्पन से नहीं हैं। न जानने वाले से जाननेवाला बडा हैं बस..! जो हमसे बडा हैं वो हमें वस्तु-विचार एवं वर्तन से ज्ञात करवाएगा। ये सहज प्रक्रिया हैं। इसमें दोनों को एक-दूसरे के प्रति नि:संदेह रहना हैं। ये पारस्परिक श्रद्धापन एक ताकत के रुप में उभरती हैं। वही हमारी मूलभूत "गुरु-शिष्य" परंपरा हैं। ईश्वर की अनन्य सृष्टि का ये अनमोल संबंध हैं। इस बेहतरीन ज्ञान संवर्धन-निर्वहन की परंपरा को हमने कई बंधनों में डाल दिया हैं। खान-पान-रहन...न जाने सिखाने वाले को कितनी शुद्धता से नापना हैं ? जब ज्ञान के स्थापन संवर्धन और ज्ञान निर्वहन से हमारा ध्यान भटकता हैं, और उसका निर्वहन करने वाले के वर्तन के बारें में हम अटक जाते हैं तब क्या बचेगा ?!
क्या गुरु बचेगा ?
क्या शिष्य बचेगा ?
क्या ज्ञान परंपरा बचेगी ?
मुझे लगता हैं, हमारे पास इतिहास की बातें ही बचेगी। गुणानुराग की परंपरा के सिवाय हमारे पास क्या होगा ?
भारतवर्ष ज्ञान की असीमित संभावनाओं का देश हैं। हमारी ज्ञान संपदा को कईं राष्ट्रो ने अपनाया और असमर्थ बनते गए। उनके शोध-अनुसंधान से आज विश्व नयेपन से व्याप्त हैं।
"गुरुपरंपरा" जो भारतवर्ष का मूल तत्व था, सत्व था उससे हम दूर होते रहे हैं। निजी स्वार्थ और सत्य की स्वीकृति से कब तक भागना हैं ? या ज्ञानसंपदा को लेकर अस्वस्थ ही रहना हैं। आज सबको ईस गुरु-शिष्य परंपरा की याद दिलाने की नौबत पे खडे हैं। ईस परंपरा में अड़चने कहां से आई ? जब सत्य और सात्विकता पर संदेह होते हैं, तब संस्कृति के संरक्षण व स्थापन के प्रयास ही करने पडते हैं...!
आनंदविश्व सहेलगाह के झरिये में भारतवर्ष की आध्यात्मिक धरोहर का भी समर्थन करते हुए विचार रखता हूं। क्योंकि मैं ये सत्वशील संपदा के अनुराग में हूं। ईश्वर की अद्भुत सृष्टि के प्रेम के कारणवश भी..ये पीड़ा शब्दांकित करता हूं। किसीको इसमें तथ्य दिखे, किसीको सत्य...!
घने अंधकार से परम प्रकाश की ओर गुरु ही ले जाते हैं।
आज के पवित्र उत्सव पर मेरे किरदार को आकारीत करने वाले सभी गुरुवर्य के सामने नतमस्तक !
🐣आपका ThoughtBird.🐣
Dr.Brijeshkumar Chandrarav
Gandhinagar, Gujarat
INDIA.
dr.brij59@gmail.com
09428312234
Guru is great
ReplyDeleteAp pan sara Guru cho
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