"In art, man reveals himself and not his Objects."
कला में मनुष्य स्वयं को प्रकट करता है न कि अपनी वस्तुओं को..!
☆ रवीन्द्रनाथ टैगोर
जीवन अद्भुत घटनाओं का मेला हैं। सभी घटनाओं में कला से झुडी बातें अक्सर ज्यादा मनभावन होती हैं। कला से जीवन में आनंद छा जाता हैं। एक घटना आकारित हुई। थोड़े दिन पहले मैं उदयपुर राजस्थान में था। 'फतेहसागर' की सैर के दरम्यान कुछ सुरीले शब्द सुनाई पड़े।
"जब दीप जले आना..!
जब शाम ढ़ले आना...!
संकेत मिलन का भुल न जाना,
मेरा प्यार न बिसराना...!
जब दीप जले आना, जब शाम ढ़ले आना...!
मैं पलकन डगर बुहारुंगा, तेरी राह निहारुंगा...!
मेरी प्रीत का काजल तुम अपने नैनों मले आना...!
जब दीप जले आना...जब शाम ढ़ले आना...! "
मेरा ध्यान सहज ही वहाँ जा पहुंचा। पार्किंग के कोने पर एक व्यक्ति गा रहा था। मैं वहां पहुँचकर खडा रह गया। गीत समाप्त होने पर थोड़ा बहुत परिचय हुआ। उस सिंगर का नाम 'राज अग्रवाल' था। सुरीली आवाज की तरह ही राज का व्यक्तित्व भी मोहक लगा। पलभर में हम दोस्त बन गए।
1976 में प्रदर्शित हुई राजश्री प्रोडक्शन की बासु चटर्जी निर्देशित फिल्म 'चितचोर' का ये गाना गायक येसुदास के सर्वोत्तम गीतों में से एक है। "जब शाम ढले आना....!" गीत के गीतकार एवं संगीतकार रवींद्रजी जैन थे। जिन्होंने राजश्री बैनर की फिल्मों के लिए अपना सर्वोत्तम संगीत दिया हैं। गीत में धुंधलाती हुई सुरमई शाम में प्रियतमा के आगमन की प्रतीक्षा हैं।एक नायक के लिए इससे बेहतर गीत और शब्दों की कल्पना करना संभव नहीं हैं। गायक येसुदास की मखमली आवाज में शालीनता से भरा प्रणय निवेदन इस गीत को चार चाँद लगाता हैं। ये गीत आज भी हमारे कानों में मिसरी घोल देता है। और मीठे स्वर से मन आज भी भर जाता हैं।
रवीन्द्रनाथ जी के शब्दों की तरह यहाँ गायक-गीतकार एवं संगीतकार प्रकट हुए हैं। तब ऐसी कृति का भावना हमें मिलता हैं। मनुष्य के रुप में हुआ ये शानदार प्रगटन हैं। इससे ही दिल को छू लेनेवाला मंजर पैदा होता हैं। करीबन उनचास बरस पहले ये फिल्म फिल्माया गया था। आज भी उसका संगीत असरदार हैं। इसका कारण व्यक्ति का स्वयं प्रगट होना हैं। और कला तब ही श्रेष्ठ कहलाती है जब व्यक्ति स्वयं को उसमें घोल देता हैं। यहाँ येसुदास ने शब्दों को पकड़कर भाव को अपनी आवाज में घोल दिया हैं। इससे गीतों में जीवंतता सुनाई पड़ती हैं। उच्चतम भावों का प्रगट होना भी एक सुंदर घटना हैं। मैं उसे ईश्वरीय दुआ का फल कहता हूँ। उसे ही रवीन्द्रनाथजीने "Reveals himself, स्वयं को प्रकट करना" कहा हैं।
कला को हम 'art कोई skill' भी कहते हैं। मगर इन दोंनो में काफी-कुछ अंतर हैं। कला शब्द की व्यापकता विशेष है, जिसका उपयोग विभिन्न प्रकार की रचनात्मक गतिविधियों, उत्पादों, या कौशल के लिए भी किया जाता हैं। चौसठ कलाओं में चित्रकारी, मूर्तिकला, संगीत-नृत्य, साहित्य और रंगमंच भी शामिल हैं। इससे आगे कल्पना और विचारों को व्यक्त करने की रचनात्मकता क्षमता को भी कला ही समझेंगे। कला एक जीवंत प्रकल्प हैं। इसीलिए सुंदरता और आनंद की भावना भी कला के माध्यम से ही व्यक्त की जाती हैं। सर्वसामान्य रुप से कहे तो अपने विचार-भाव या अनुभूति को अभिव्यक्त करने का बहतरीन तरीका कला हैं। इससे अच्छा लिखने में मेरी काबिलियत नहीं हैं, इस स्वीकार के साथ...!
आपका Thoughtbird 🐣
Dr.Brijeshkumar Chandrarav
Modasa, Aravalli, Gujarat,
INDIA
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फिल्म की कहानी की रूप रेखा
ReplyDeleteपीतांबर चौधरी जो मधुपुर गाँव के एक स्कूल में प्राध्यापक हैं अपनी पत्नी और दो बेटियों गीता और मीरा के साथ रहते हैं मीरा जो मुंबई में रहती है अपने पिता को एक इंजीनियर के आने की सूचना देती है जो गीता के लिए एक संभावित वर हो सकता है जब विनोद जो गाँव पहुंचता है तो वह गीता और उसके परिवार के साथ घुल-मिल जाता है गीता और विनोद के बीच प्रेम हो जाता है लेकिन तभी मीरा की दूसरी चिट्ठी आती है जिसमें वह बताती है कि असली इंजीनियर सुनील अभी तक नहीं आया है
गीता के परिवार वाले सुनील के साथ गीता की सगाई करने का फैसला करते हैं लेकिन गीता विनोद से प्यार करती है और सुनील के साथ सगाई नहीं करना चाहती जब विनोद को पता चलता है कि गीता की सगाई सुनील के साथ हो रही है तो वह गाँव छोड़ने का फैसला करता है गीता विनोद को ढूंढने के लिए स्टेशन जाती है लेकिन ट्रेन छूट जाती है बाद में पता चलता है कि विनोद ही असली वर है और गीता और विनोद की सगाई हो जाती है।
ऐसी कुछ कहानी फिल्म की है