Excellence is created when love is dignified.
प्रेम की प्रतिष्ठा कैसे होती है ?
संसार को कृष्ण की प्राप्ति हुई ये कमाल की घटना हैं। ये ऐेसे ही नहीं हुई। कुछ तो ऐसा हुआ है कि आजतक ये कृष्ण प्रेमपुरुष बने लाखों-करोंडो दिलों में अपनी जगह बनाए हुए हैं। कृष्ण ने अपने भीतर प्रेम प्रतिष्ठापित किया हैं। प्रेम को संवर्धित किया हैं। हम भारतवर्ष के लोग पुरातन काल से पत्थर की मूर्ति में प्राणप्रतिष्ठा करते आए हैं। विश्व में ऐसी कोई कोई सभ्यता या संस्कृति नहीं हैं। हम लोग श्रद्धेय हैं। इसीलिए ये हमारा संस्कार बना हुआ हैं। जब कोई मंदिर में प्राणप्रतिष्ठित ईश्वर का स्थापन होता हैं तब वो हमारे श्रद्धा केन्द्र बन जाते हैं। मंदिर हमारा आस्था केन्द्र यूंही नहीं बना।
प्रतिष्ठा का मतलब गौरव भी हैं, स्थापन भी हैं। जो स्थापित हुआ फिर हमारे लिए गौरवान्वित हुआ। ये हमारी मान्यता हैं। तभी तो एक मंदिर में बैठे भगवान के आगे हम समर्पण करते हुए आये हैं। हमारी आस्था जहां हैं वो हमारे लिए प्रेमकेन्द्र बन जाता हैं। कोई अलौकिक शांति हमें प्राप्त होती हैं। जीवन की ऊर्जा प्राप्त होती हैं। जीवन में कुछ प्राप्ति होती है! तो हम ईश्वर की कृपा-करुणा की अनुभूति करते हैं। ये है प्रेम प्रतिष्ठान..!
अब बारी आती है हमारी..जीवंत मनुष्य के रुप में हम किसी दूसरे में ये प्रेम प्रतिष्ठान करते हैं क्या ? नहीं करते, क्यो नही कर सकते ? ये भी हमें ही सोचना होगा। प्रेम की प्रतिष्ठा मतलब चिरकालिन सभ्यता का अनुसरण हैं। ईश्वर अदृश्य होकर भी हमारे बीच रहना चाहते हैं। तो दृश्यरुप जीवंत मनुष्य का क्या ? शायद ये प्रतिष्ठा की परंपरा हमें यही सिखाती हैं। प्रेम की अप्रतिम प्रतिष्ठा..! व्यक्ति-व्यक्ति के बीच की प्रेमप्रतिष्ठा..! स्त्री और पुरुष के बीच की प्रतिष्ठा..! ईश्वर तो समग्र सृष्टि में प्रकृति में भी प्रेम प्रतिष्ठित दृष्टी का संचार करना चाहते हैं। सृष्टि में कुछ दमदार घटनाएं प्रेम की अद्भुत अनुभूति में ही हुई हैं। इसीलिए प्रेम अक्षय निर्माता हैं। कृष्ण कर्ता बनें इसका कारण भी प्रेम ही हैं।
कृष्ण ने अपनी जीवन लीला से हमारें सामने एक येसा जबर्दस्त उदाहरण प्रस्तुत किया हैं। बांस की बांसुरी से लेकर पंछी के मोरपंख को धारण करके उन्होंने सबका गौरव किया हैं। कृष्ण की बात आती है तो समझ में आता है, उन्होंने सबके साथ समता का ही व्यवहार किया हैं। कोई मर्यादा का उल्लंघन हो तब तक वो शांत रहे,धीर रहे। अपनी प्रेमवृति का आचरण करते हुए..!
प्रेम के बारें में लिखना भी एक आनंदरुप अनुभूति से कम नहीं हैं। पूज्य मोरारिबापु के मुँह एकबार सुना था.." प्रेम का कोई अर्थ नहीं कर सकता। प्रेम अवाच्य हैं, अव्याख्य हैं, अनिर्वचनीय हैं। प्रेम की कोई भाषा या लिपि हैं तो वो आंसु हैं। रुह से महसूस करो। प्रेम को प्रेम ही रहने दो, उसे कोई नाम न दो। हमारें मानस में लिखा हैं "राम ही केवल प्रेमप्यारा..!" प्रेम परमात्मा हैं, परमात्मा ही प्रेम हैं।" इससे अच्छी प्रेम की बात करने की मेरी क्षमता नहीं हैं।
आज प्रेम स्थापना की बात रखते हुए मैं भी प्रेममय हूँ। शायद कुछ शब्दों के जरिए ही सही मैं प्रेम जी रहा हूं। मैं प्रेम महसूस कर रहा हूँ। मेरे और आपके भीतर जो उत्कृष्ट चेतनाएं प्रकट होती है वो प्रेमवश ही संभव हुई हैं। कुछ अच्छे लम्हों ने हमारे मन में बसेरा किया है, वो सहज नहीं हैं। प्रेम में बीते हर क्षण की मूल्यता अपरंपार हैं। अपने-अपने लम्हों की याद करवाकर रुकता हूँ।
आपका ThoughtBird 🐣
Dr.Brijeshkumar Chandrarav.
Gandhinagar, Gujarat.
INDIA.
dr.brij59@gmail.com
9428312234
Love is always love.
ReplyDeleteCongratulation Dr. Chandrarav.
ReplyDeleteExcellence thought
ReplyDeleteबहोत खूब कहा । प्रेम का कोई अविष्कार नहीं। प्रेम स्वयं अभिव्यक्ति है।
ReplyDeletePlease write your name
DeleteGood thought.
ReplyDeleteVery nice.
ReplyDeleteSuper
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