More is learned from experience than from tradition.
परम्परा से अधिक अनुभव से सीखा जाता है।समाज परंपराओं से बँधा हैं। आदिमानव से लेकर सुसंस्कृत मानव सभ्यता की यात्रा में परंपराओं का बहुत बडा योगदान हैं। एक रीति, एक रिवाज या हमारें पुरखों की जीवन संबंधित मान्यताएँ उसे हम परंपरा कहते हैं। युगों से चली आ रही एक सामाजिक व्यवहार की परंपरा से समग्र मानव प्रजाति झुडी हैं। इससे सामाजिक व्यवस्थापन हुआ। मनुष्य का विकास हुआ। यहां तक सब ठीक दिखाई पडता हैं।
लेकिन कुछ लोग परंपरा से उपर उठकर कोई कार्य करते हैं। शायद वो कार्य समाज को उपयोगी नहीं होगा तो उसका विरोध निश्चित होगा। शायद उसके परिणाम बाद में समझमें आते हैं। तो बाद में उसका स्वीकार होता हैं। ये असमंजसता क्यो पैदा हुई ? बाद में उस विचार कों क्रांति का नाम दिया जाता हैं। परिवर्तन संसार का नियम हैं। उस न्याय के आधार पर परंपरा से उपर उठनेवालों का स्वीकार होता हैं, जयजयकार भी होता हैं। वो प्रतिष्ठित आदमी बन जाता हैं। ऐसा भी क्यो होता हैं।
जवाब हैं; परंपरा से उपर अनुभव हैं। समाज भी अनुभवों की बातों का अनुसार ज्यादा करता हैं। परंपराएं लुप्त हो सकती हैं। अनुभव कभी लुप्त नहीं होता। आज हम देखतें हैं कि भारत में कईं परंपरा अच्छी होने के बावजूद विद्यमान नहीं हैं। कईं लोग और संगठन परंपरा के ह्रास से चिंतित हैं। परंपरा पूजक बनकर खूब प्रयास करते हैं। लेकिन वो भी परंपरा को टीका नहीं पा रहे हैं। और संस्कृति के मूल्यहास की बूमराण मच जाती हैं। ऐसा माहोल पूरे विश्व में हैं। ऐसा क्यों होता हैं। अच्छी बात समाज में टिकती हैं, फिर परंपरा टिकती क्यों नहीं उसके कारण हमें मिलते नहीं। थोडा बहुत शांत बनकर सोचना पड़ेगा।
जो परंपरा मात्र परंपरा रहे वो कभी टिकती नहीं। उसके साथ हमारा अनुभव झुडता हैं तभी परंपरा की तथ्यात्मक समझ हममें स्थापित होगी। परंपरा एक सामाजिक संयोग के रुप में हैं। जब परंपरा की सत्यार्थता हमारे अनुभूति में आ जाय फिर वो कायम होगी। समाज बुद्धिकी अमर्यादित सिमाओं को लांघकर विकसित हो रहा हैं। ये सही के ये गलत की होड मची हुई हैं। कोई धर्म को लेकर, कोई संप्रदाय से, कोई स्वर्ग को लेकर, कोई जन्म-मरण के बंधन को लेकर बैठा हैं। कोई दूसरों से कैसे डरना हैं, उसकी हटिया लगाकर बैठे हैं।
जिसको समाज की परवाह हैं, समग्र मानवजात की फिकर हैं वो परंपरा को अनुभूति में लाएंगे तब कुछ अच्छा संभव हो सकता हैं। भारतवर्ष ने विश्व को "वसुधैवकुटुंबकम्" परिकल्पना दी हैं। सारी पृथ्वी एक कुटुंब- परिवार की भांति हैं ये विचार हमने दिया हैं। सच हैं, लेकिन क्या उसे परंपरा की बातों में ही रहने देना हैं। तो फर्क क्या पड़ेगा !?
स्वयं की अनुभूति ही स्वयं का उद्धार हैं। हमें वैयक्तिक रुप से परंपरा को अनुभूति में लाना हैं। फिर जो बात कही जाती हैं, वो सनातन रूप से समाज में टिकती हैं। मनुष्य के रुपमें जब से हमें परंपरा पूजक बनें तब से ये समस्या खडी हुई हैं। परंपरा को निभाना हैं, उसे अनुभव में लाना भी कहते हैं। परंपरा का मात्र गौरव करना एक बात हैं। उसका अनुसरण करना दूसरी बात हैं।
भारत की परंपराएँ श्रेष्ठ है तो उसका अनुसर करें। न की मात्र वाह-वाही..! भारत की जय बोलना एक बात हैं। भारत की जय करवाना दूसरी बात हैं।
आपका ThoughtBird 🐣
Dr.Brijeshkumar Chandrarav.
Gandhinagar, Gujarat.
INDIA.
dr.brij59@gmail.com
+91 9428312234
Nice 👍
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