राष्ट्रवाद और प्रकृतिवाद में साम्यता हैं क्य़ा ?
मनुष्य के लिए राष्ट्रीयता प्राकृतिक होनी चाहिए !
अनुराग में जीना ही सभ्यता हैं !
मनुष्य जीतना सुसंस्कृत हुआ उतनी समस्याएं पैदा हो गई। मनुष्य की एकाकी सफर (आदिमानव वाली) सामुदायिक होती गई....साथ न जाने कितने वर्गभेद में बंटती गई। हमने ही समूह में जीना पसंद किया, हमने ही परिवार की संकल्पना आकारित की हैं। हमने राष्ट्र बनाकर सीमाओं के दायरे भी खींचे हैं। हमने ही पारस्परिक साथ वाला जीवन पसंद किया। एक दूसरें की संगत को रंगत भी हमने ही बनाया..! अनुराग में जीने का पागलपन ही मानवीय सभ्यता हैं। ईश्वर की प्रकृतिगत सृष्टि इसी कमाल को आगे बढाती हैं। हम सब ज्यादा सुसंस्कृत होने लगे और मानवीय सभ्यता की नई मिसाल खडी करने का प्रयास करने लगे। अच्छी बात हैं, समय की मांग पर आवश्यकता के अनुसार मनुष्य जीवन निर्भर करता हैं..!!
मैं वैयक्तिक रूप से प्रकृति के सिद्धांत में ज्यादातर विश्वास करता हूं। क्योंकि उसका विजय ही सनातन हैं, वो न किसीका सुनती हैं, न किसीके प्रभाव में अनुसरण करती है। प्रकृति प्रकृति हैं !! वही नित्य हैं, सनातन सत्य भी वही हैं। ईस प्रकृति के साम्राज्य में हम मनुष्य अपनी सांस ले रहे हैं। इनमें से हमने अपना जीवन ढूंढा हैं।
विशाल पृथ्वी में हम जहां पैदा हुए वो हमारा जन्मस्थान कहलाया। ममत्व से उस धरती से हम सहज झुडाव महसूस करने लगें। प्रकृतिगत हमारी संवेदनाएं भी उस स्थान से झुड ही जाती हैं। मेरा घर, मेरा गांव, मेरा देश,मेरा खंड मेरी धरती जैसे कईं ममत्वों से संवृत होते चलें।भू-भाग के साथ ही हमारा अस्तित्व जोडने लगे।
भारत की प्राचीन वेद परंपरा "वसुधैव कुटुंबकम" सारी पृथ्वी एक कुटुंब हैं ऐसा कहती हैं। जिज्ञासावश मेरे मन में एक सवाल हैं...की विश्व के कल्याण का भाव रखने वाली सनातन संस्कृति, वेद परंपरा में भेदभाव जैसा अनुसरण होगा क्या ? मैं तो भेदभाव शब्द की कल्पना भी नहीं कर सकता।
विश्व बंधुता के विचार हमारे भारतवर्ष की मानवीय सभ्यता के प्राण हैं। विराट-विशालतम मात्र कल्पनाएं नहीं अनुसरण भी हमारे राष्ट्र के चेतनतत्व हैं। तो कटुताएं- वैमनस्य एवं निश्चित वर्ग समूह की श्रेष्ठताएं कैसा विनाश करेगी ? जब स्वार्थ पूर्ण विचार-वर्तन का विस्तार बढ जाए तब संपूर्ण विध्वंस ही झेलना पडता हैं। ये भी प्रकृति का सिद्धांत हैं। एक मात्र डायनासोर के लूप्त अस्तित्व के उदाहरण को देखे तो भी काफी-कुछ समज में आता हैं। समस्त प्राणी सृष्टि के लिए भयानक था ये महाकाय प्राणी लेकिन उनका ही अंत हो गया। गजराज भी महाकाय हैं वो आज भी पवित्रम अस्तित्व बनाए हुए हैं !!
उत्क्रांतिक गति में कई लुप्त हो गए हैं। सही हैं न ?!
प्रताडित करने में महारत हांसिल की जा सकती हैं, थोड़ी बहुत वाहवाही भी हो सकती हैं....विजय नहीं !
महान ईश्वर सबका हैं, वो सृजन का आधार हैं वो निर्मिति का कारण भी हैं। भारतवर्ष महान सभ्यता के रुप में इसी विशालतम विचारधारा से उभरता गया हैं। वेद प्रकृति के पुरस्कर्ता हैं। वेद संवेदना के भी पुरस्कर्ता हैं। वेद प्रकृति की जीवंतता से मनुष्य को जोडकर उम्मीद से भरा श्रद्धा और विश्वास से भरा निर्भिक जीवन प्रदान करने की बात करते हैं। ईस विचार में "राष्ट्रवाद" किस तरीके का आकारित होना चाहिए ये हमें ही सोचना चाहिए। फिर हम क्या वर्ताव करते हैं वो भी हमें ही सोचना हैं !! राष्ट्र के प्रति अहोभाव कभी न भूलें!
प्रकृति पंच भूतानि ग्रहा लोका स्वरास्तथा ।
दिशः कालश्च सर्वेषां सदा कुर्वन्तु मंगलमय ।।
आपका ThoughtBird.🐣
Dr.Brijeshkumar Chandrarav
Gandhinagar,Gujarat
INDIA.
dr.brij59@gmail.com
09428312234.
ખુબ ઉત્તમ ચિંતન..! સ્વ થી સમષ્ટિ ... સર્વનું ાંંગલ થાય એ વેદ ાન્ય ત્ય... આપ ંાંંક્ષિપ્ત મા આલેખી. ક્યા...ીિનંદન...!!
ReplyDeleteजिस समाज में धरती को माता माना जाता है, वृक्षों को पूज्य माना जाता है, नदियों को लोकमाता, पर्वतों को देवतुल्य माना जाता है उस समाजका राष्ट्रवाद प्राकृतिक है।
ReplyDeleteTx for inspire to me.
Deleteजिस समाज में धरती को माता माना जाता है, वृक्ष को पूज्य माना जाता है, नदियों को लोकमाता और पर्वतों को देवतुल्य माना जाता है, उस समाजका राष्ट्रवाद प्राकृतिक है।
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