Do not look for the finish line.
With Life, the Journey itself is the Destination.SADGURU.
"अंतिम रेखा की तलाश मत करो। जीवन में, यात्रा ही मंजिल है।"
जीवन यात्रा हैं और बेहतरीन यात्रा हैं। जन्म-जन्मांतर के निमित्त कहे या हम नहीं जानते वैसी ईश्वर की कोई योजना कहे..! जिनके तहत ये जीवन मिला हैं, हैं बड़ा ही सुहाना...! आज मुझे सद्गुरु ने फिर एकबार ब्लोग का विषय दिया हैं। सद्गुरु जैसे ऋषियों के कारण हम जैसे लोगों को विचार मिलता हैं। चिंतन मनन व्यापार मिलता हैं। जीवन की दृष्टि खिलती हैं। जीवन का कोई अंतिम स्थान ही नहीं हैं। जीवन ठहराव के बीना अनवरत बहती नदी जैसा हैं। सागर के मिलन के बाद भी जल की यात्रा ठहरती नहीं हैं। खारेपन को छोडकर तपना हैं फिर एकबार बारिश बनके धरती पर बरसाना हैं। जीवन की यात्रा भी कभी थमती नहीं..! एक जीवन के बाद दूसरा जीवन, जैसे जन्म के बाद मृत्यु और मृत्यु के बाद जन्म...! सद्गुरु इसी कारण जीवन को यात्रा कहते हैं। और ये यात्रा ही मंज़िल हैं ऐसा भी कहते हैं।
हम जानते हैं कि एक जीवन जन्म से मृत्यु पर्यंत प्राप्ति की दौड़ में लगा रहता हैं। वो भी एक जीवन की आनंद यात्रा हैं। मनुष्य इस जीवन की यादें लेकर दूसरे जीवन की यात्रा में निकल पड़ता हैं। एक जीवन का शरीर पंचमहाभूतों में विलिन हो जाता हैं, इसे हम मृत्यु कहते हैं। सद्गुरु पूरे जीवन को यात्रा कहकर हमें हमारी आज पर या इस जन्म की हमारी मानवीय सभ्यता पर केन्द्रित होना कहते हैं। जीवन के आनंद के प्रति जागरूक होने की बात करते हैं। एक शांत झरने की तरह उछलते, खेलते बस बहने की बात सिखाते हैं। इसका मतलब कोई ऐसा हरगिज न करें कि जीवन में कुछ प्राप्त नहीं करना हैं। जीवन में भीतर उठती आशाओं को पालना हैं, उसे पूरी करने का आनंद भी लेना हैं। जीवन की यात्रा में मिले ये बेहतरीन मुकाम कहलायेंगे। चलों...एक बहुत ही सुंदर विचार से भरी कविता पढ़ते हैं। जिसमें रचनाकार की यायावर के साथ बातचीत हैं।
ले गए तुम कई बार साथ में,
हमें अपनी यात्राओं पर,
चित्रकूट, वृंदावन, सौराष्ट्री सागर-तट
या कहीं और भी,
पर यह कौन-सी यात्रा है ?
यायावर !
जहाँ तुमने,
अकेले ही असंग जाने का निर्णय लिया,
और चल भी दिए ?
● स्रोत : पुस्तक : रचना संचयन (पृष्ठ ११२) संपादक : प्रभाकर श्रोत्रिय, रचनाकार : श्री नरेश मेहता, प्रकाशन : साहित्य अकादेमी संस्करण : 2015
कविता का विचार और सद्गुरु जी के विचार में मुझे साम्यता दिखी हैं। जीवन पंछी की तरह गाता, मुस्कुराता और आसमान में मस्तीभरी सैर करनेवाला होना चाहिए। लेकिन रचनाकार की संवेदन को पकडना। उनके शब्दों में यायावर की असंग उड़ान से खेद हैं। एक तरफ जीवन का कोई साथी-संगी अपनी अंतिम यात्रा पर निकल गया हो और संगति का साथ छूट गया हैं, ऐसी भी संवेदना प्रकट होती दिखाई पड़ती हैं। हमें इतना समझ में आ रहा हैं। जीवन ही यात्रा हैं वो यात्रा अनवरत हैं। हाँ, एक भौतिक शरीर की यात्रा रुक जाती हैं, जीवन की नहीं...!
यात्रा 'अनुभव और अनुभूति' से जुड़ी हैं। यात्रा के दौरान कई ऐसे हादसों से गुजरना पड़ता है इसमें सुख-दुख का तालमेल बना रहता हैं। कहीं आनंद हैं, कहीं पीड़ा, कहीं हर्ष-शोक-निराशा सबकुछ हैं। कहीं पर प्राप्ति-अप्राप्ति भी हैं। कहीं पर क्रोध हैं, असूया हैं। कहीं पर दूसरों के प्रति आदर हैं, प्रेम भी हैं। कहीं पर घृणा रक्त बनकर बह रही होती हैं। कहीं पर घृणा अत्यंत क्रोध में परिणमित होकर विकृति बन जाती हैं। अपने खुद की यात्रा को खुद ही विचित्रता से घेर लेते हैं। ऐसे लोगो की जीवन यात्रा समाज को जीने लायक नहीं छोड़ती। इस सत्य को स्वीकार करना बहुत मुश्किल हैं। क्योंकि यहां साफ-सुथरे लोगो ने अपना आशियाना भौतिक चकाचौंध से सजाया हैं। वो जीवन को यात्रा से कम ऐयाशी ज़्यादा समझते हैं। उनको अपने जीवन की भीतर की आवाज के मुताबिक जीना होगा..! दोस्तों, इसे सलाह सूचन या कोई फिलसूफी भरी बातें मत समझना केवल एक विचार का वैयक्तिक समर्थन समझना...!
आपका Thoughtbird 🐣
Dr.Brijeshkumar Chandrarav
Modasa, Aravalli.
Gujarat,
INDIA.
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