विचार के प्रति समर्पण की अद्भुत मिसाल।
भारत का एक ऐसा चरित्र जो अंग्रेजो की भूमि में रहकर क्रांति की आवाज बनें..!
Most salutary person...!
SARADARSINH RANA.
सरदारसिंह राणा का जन्म दशमी अप्रैल 1870 को सौराष्ट्र के कंथारीया मे हुआ था। हिन्दु पंचांग के मुताबिक चैत्र मास की नोम थी।उसे हम रामनवमी के रुप में मनाते हैं। परिवर्तन का उद्घोषक चैत्र..ये भी एक अनमोल संयोग हैं। लींमडी का राज परिवार पिता रावाजी द्वितीय और माता फुलाजीबा की परवरिश के साथ राजवी परिवार की समदृष्टी और समर्पण के संस्कार को लेकर एक दमदार व्यक्तित्व खड़ा हुआ।
थोडी-बहुत राणाजी की शिक्षाप्राप्ति की बातें...उन्होंनें धूली यानी गांव की स्कूल में अध्ययन किया था। बाद में राजकोट के अल्फ्रेड हाईस्कूल में शामिल हो गए। वहां मोहनदास गांधी भी उनके सहपाठी थे। 1891 में अपनी मैट्रिकुलेशन पूरा करने के बाद, उन्होंने 1898 में बॉम्बे विश्वविद्यालय स्नातक के बाद एल्फिंस्टन कॉलेज में बाद में पुणे की फर्ग्यूसन कॉलेज में भी अध्ययन किया था। जहां लोकमान्य तिलक और सुरेंद्रनाथ बनर्जी के संपर्क में आना हुआ। यहां की पढाई पूरी करने के बाद राणाजी बैरिस्टर डिग्री का अध्ययन करने के लिए लंदन गए। वहां वे श्यामजी कृष्ण वर्मा और भीखाजी काम के साथ संपर्क मे आये। लंदन में "इंडिया हाउस" की स्थापना में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
उनके जीवन का एक ओर पडाव 1899 में आया। राणाजी बैरिस्टर की परीक्षा के बाद पेरिस चले गए। उन्होंने विश्व व्यापार शो के लिए पेरिस में कैंबे के एक जौहरी जिवांचंद उत्तराचंद के अनुवादक के रूप में कार्य किया। वहां रहकर वो नये व्यवसाय के विशेषज्ञ बन गये। , मोती और आभूषण का व्यापार शुरू किया। सरदारसिंह पेरिस में 56, रुए ला फेयेट स्ट्रीट पर रहते थे। ईस व्यापार से आर्थिक संपन्नता बढती गई। इस दौरान वे भारतीय राष्ट्रवादी राजनेताओं को मिलते रहते। जिनमें लाला लाजपत राय भी शामिल थे ओर वे काफी समय साथ भी रहे थे। 1905 में "इंडियन होमरूल सोसाइटी" की स्थापना हुई। उनमें संस्थापक सदस्यों में से राणाजी एक थे और सोसाइटी के उपाध्यक्ष भी थे। मुन्चेशाह बुर्जोजी गोदरेज और भिखाजी कामा के साथ उन्होंने "पेरिस इंडियन सोसाइटी" की भी स्थापना उसी वर्ष यूरोपीय महाद्वीप पर इंडियन होमरूल सोसाइटी के विस्तार के रूप में की गई थी।
श्यामजी कृष्ण वर्मा के रूप के साथ मिलकर राणा ने भारतीय समाजशास्त्रीओं के लिए महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी के नाम पर भारतीय छात्रों के लिए तीन छात्रवृत्तियां घोषित की थी। प्रत्येक छात्र को 2,000 की कीमत थी। उन्होंने कई अन्य छात्रवृत्ति और यात्रा फैलोशिप भी दी थी। उन्होंने ऐेसे कई तरीकों से भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में मदद की। उन्होंने विनायक दामोदर सावरकर को अपनी प्रतिबंधित पुस्तक "द इंडियन वॉर ऑफ आजादी" का प्रकाशन करने में भी बडी मदद की थी। उन्होंने 1910 में द हेग के स्थायी न्यायालय में अपने मार्सिले शरण मामले में भी उनकी मदद की थी। उन्होंने सुभाषचंद्र बोस को जर्मन रेडियो पर दर्शकों को संबोधित करने में मदद की थी। साथ ही बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना में भी काफी मदद की थी।
18 अगस्त 1907 को स्टुटगार्ट शहर में दूसरी सोशलिस्ट कांग्रेस में भाग लेने के साथ वहां "भारतीय स्वतंत्रता का ध्वज" भीखाजी कामा द्वारा प्रस्तुत किया गया था। राणाजी ने "बांदे मातरम्" (पेरिस से कामा द्वारा प्रकाशित) और "द तलवार" (बर्लिन से प्रकाशित) में नियमित अपना योगदान देते थे। अपना कारोबार लपेट कर वे 1955 में भारत में वापस आ गए। थोडा स्वास्थ्य भी विफल हो रहा था। बाद में स्ट्रोक के कारण 25 मई 1957 को वेरावल के सर्किट हाउस में उनकी मृत्यु हो गई।
(माहिती स्रोत विकिपीडिया और वेबसाइट सरदारसिंहराणा)
एक जौहरी थे राणाजी। मोती और झवेरात के साथ के अच्छा नाता था उनका..! साथ ही व्यक्ति की परख के भी जौहरी थे। कौन कहाँ पर काम आ सकता हैं उनकी बखूबी समझ रखते थे। अपने कारोबार से आभूषण के व्यवसाय से वो खूब धन भी अर्जित करते थे। लेकिन वो धन राष्ट्रसेवा और राष्ट्र सपूतों की कर्मठता में समर्पित था। एक व्यक्ति कहां-कहां पहुंचता हैं। अपना तन-मन-धन समर्पण इसे कहते हैं। राष्ट्र की स्वतंत्रता उनके मन सबसे उपर थी। अंग्रेजों की भूमि में रहकर उनके खिलाफ काम करना ये सामान्य घटना नहीं हैं। मा.सरदारसिंह राणा एक वीर हैं। माँ भारती को कब कैसी कुर्बानी चाहिए इसकी पूरी समझ से वे संपन्न थे। वे धन से संपन्न थे साथ मन की उदारता से भी संपन्न थे।
राष्ट्रपुरुष मा.सरदारसिंह राणा को शत शत वंदन !!
आपका ThoughtBird.🐣
Dr.Brijeshkumar Chandrarav.
Gandhinagar, Gujarat,
INDIA.
dr.brij59@gmail.com
9428312234
Nice information sir
ReplyDeleteRajput ni San.. Sardarsinh Rana
ReplyDeleteBharat Mata ki Jay.
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